कभी टूटने दी ना माँ
तूने संबंधो की डोर
आर्तभाव कितने हों गहरे
पकड़ के रखा छोर
तेरे जीवन की खूँटी पर
देखी टँगी उदासी
घने कुहासे में फिर भी माँ
बनती रही किरन उजासी
जुड़ा रहे घर बँटे ना अँगना
सब कुछ सह लेती माँ आप
दिल पर लिखा दर्द बाँटती
दीवारों से वह चुपचाप
जाने कैसे नाज़ुक काँधों पे
दुख के रही शैल उठाती
दृड़ निश्चय सदा वज्र इरादे
मन मृदु गुलाब की पाती
जाने कैसे भाँप लेती थी
मेरे मन का गहन अँधेरा
जितना भी चाहूँ मैं छिपाना
पढ़ लेती थी मेरा चेहरा
तू रखती मेरे सर जब हाथ
मिट जाते थे सभी विषाद
कभी ना झिड़का तूने माँ
सब क्षमा किए मेरे अपराध
तपश हथेली की तेरी माँ
स्नेहसिक्त हाथों का स्पर्श
लाऊँ कहाँ से बनता था जो
कठिनाईयों में मेरा संबल
ग्रह दोष मेरी कुंड़ली में
व्रत रखती रही तू लगातार
ग़मगीन होता था दिल मेरा
बहती थी तेरी अश्रुधार
मेरी प्रगति की चिंता में घुली
कतरा-कतरा तू दिन-रात
मुझे सुला कर तू कब सोई
मेरे कल की चिंता ढोई
अपनी उम्र मुझे देने को
आधी उम्र उपवास में खोई
मुझे निवाला देकर अपना
सदा तृप्त आन्नदित होई
माँ मैं तो तेरी परछाई
फिर भी तुझको समझ ना पाई
गढ़ा अनोखा शिल्पकार ने
लगता माटी कोई खास लगाई
तेरे कृत्यों के आगे
कर्तव्य गए मेरे हार
किया दूर विधना ने चाहे
फिर भी माँ महसूस करूँ मैं
प्रतिपल तेरा कोसा प्यार।