सर्द ऋतु में प्रस्तुत हैं मेरे कुछ सुशीत सेदोका
आसमान ने
भरीं जो सर्द आहें
जमा लोक-जहान
काँपा ह्रदय
अवनि पर्वत का
नदी ताल निष्प्राण ।
लटका पाला
सिकुड़ गए दिन
सर्दी की आततायी
धूप कुन्दनी
बेबस हुई दीखे
ज्यों कृश परछाई ।
सूनी डाँड पे
भाग रहे हैं पाँव
क्षितिज पार बसे
रवि के गाँव
घनी धुँध में खड़ी
जमें रश्मि के पाँव।
कानन झीलें
अँधियारे में खोईं
कोहरे में हवाएं
पगडंडी भी
डर छिपि धुँध में
कैसे घर को जाएं।
शांत मना सी
पगडंडी है लेटी
चुप सी हवा खड़ी
जाड़े ने ताड़ा
चुप्पी छाई हाट में
शांत है हड़बड़ी।
ठगा भोर ने
सूरज लुका कहाँ
ओढ़ी धुँध रजाई
कंपित धरा
बावरे गगन ने
तुषार बरसाई।
निर्बाध फिरें
बर्फीली हवाएं आ
सीटियाँ बजातीं औ
झूम-झूम के
अपनी आज़ादी का
देखो जश्न मनातीं।
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