Friday, April 12, 2013

ईर्षा


ईर्षा की आग
लग जाए दिल में
भड़कती अखंड
होती प्रचंड
रिश्ते हों खंड-खंड
लुटे चैन आन्नद।

द्वेष भट्टी में
लगे जो दहकने
प्रतिशोध की आग
भस्म विवेक
धारे विष रसना
दानव जाए जाग।

तीर लगे जो
निकल कमान से
हो जाता उपचार
तीर द्वेष का
बेंध जाए यदि, तो
नहीं रोगोपचार।

बोल को बोलो
सोच समझ कर
बोल ना हो दोधार
जाँच-परख
तुले बुद्धी बाट से
सही नपेगा भार।

प्रतिकार की
अग्नि कभी भड़के
करती नुक़सान
शब्द बाण से
घायल होती आत्मा
हों सम्बन्ध निष्प्राण।

 

 

 

 

Wednesday, April 3, 2013

अजब विकास


इंटरनेट से प्रीत लगी बस
इंटरनेट हुआ रिश्तेदार
यार मित्र की कमी खले ना
याद ना आने दे परिवार
दिनचर्या की धुरी पर ही
जीवन अपना सरपट भागे
घर परिवार को छोड़ के पीछे
दुनियाँ से रहू बस नित आगे
घड़ी पुरानी की भाँति बस
एक बोल पे अटकी ज़ुबान
समय नहीं पड़े कितने काम
जीवन अब कहाँ रह गया आम
माँ की गोद छिनी शिशुओं से
लैपटौप ने बाज़ी मारी
दिन भर माँ सहलाए उसको
भेजे बच्चों को बालवाड़ी
धन से चाहे जेबें अटी हैं
पर सेहत की टूटी छड़ी है
कौन सहारे चल पाओगे
जवाँ उम्र में ढ़ल जाओगे
चूल्हा चौका पड़ा है औंधा
ना कुछ पकता ना कुछ राँधा
सजी रसोई आधुनिक सामान
पर वंचित पूरी पकवान
हुए मुक्त और छूटा झंझट
रेडी टू ईट को खोला झटपट
माइक्रोवेव में गरम किया
और परिवार को परस दिया
मलटी विटामिन नित खाकर भी
सेहत रहती है परेशान
तन में मन भी उलझा-उलझा
क्यूँ ना छोड़े मुझे थकान
भूली दाल-भात तरकारी
रोटी चूल्हे की सिकी करारी
जब से तज दिया ताज़ा खाना
मिलीं भेंट में कई बीमारी
घर तो केवल लगें मकान
रहते संग फीकी पहचान
बात-चीत होती है तब, जब
करने होते बिल भुगतान।
अजब ज़माने ने की उन्नति
मूड़्मति बढ़ी नष्ट सुमति
अनंत ज्ञान की बढ़ी मात्रा
हुई जीवन की लघु यात्रा
जीवन में सब सुख यूँ रूठे
ज्यों पतझड़ में पत्ते सूखें
जाने कैसी कला सीख ली
भीतर रुदन बाहर खुश दीखें
कलयुग का कैसा है जादू
बढ़ा प्रशिक्षण मिट रहे साधू
जन से जन का प्यार घट रहा
जीवन का आधार मिट रहा
डोल रहे नित धरा आकाश
क्या इसको ही कहें विकास।